Lekhika Ranchi

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रविंद्रनाथ टैगोर की रचनाएं


धन की भेंट रबीन्द्रनाथ टैगोर

1
वृन्दावन कुण्डू क्रोधावेश में अपने पिता के पास आकर कहने लगा- "मैं इसी समय आपसे विदा होना चाहता हूं।"
उसके पिता जगन्नाथ कुण्डू ने घृणा प्रकट करते हुए कहा- "अभागे! कृतघ्न! मैंने जो रुपया तेरे पालन-पोषण पर खर्च किया है, उसे चुका कर ही ऐसी धमकी देना।"
जिस प्रकार का खान-पान जगन्नाथ के घर चला करता था उस पर कुछ अधिक व्यय न होता था। भारत के प्राचीन ऋषि मितव्ययता के लिए ऐसी ही वस्तुओं का प्रबन्ध कर लिया करते थे। जगन्नाथ के व्यवहार से ज्ञात होता था वह इस विषय में उन ऋषियों ही के निर्मित आदर्शों पर चलना पसन्द करता था। यद्यपि वह पूर्णरूप से इस आदर्श को निबाहने में असमर्थ था। इसका कारण कुछ यह समझा जा सकता है कि जिस समाज में उसका रहन-सहन था वह अपने प्राचीन आदर्शों से बहुत पतित हो चुका था और कुछ यह कि उसकी आत्मा को शरीर के साथ मिलाये रखने के विषय में प्रकृति की उत्तेजना तीव्र और युक्तियुक्त-संगत थी।
जब तक वृन्दावन अविवाहित था, उसका निर्वाह जैसे-तैसे चलता रहा, किन्तु विवाह के पश्चात् उसने सीमा से बाहर इस उत्तम और सुन्दर आदर्श को, जो उसके महामना पिता ने निर्मित कर रखा था, त्यागना शुरू कर दिया। ऐसा ज्ञात होता था कि सांसारिक सुख-ऐश्वर्य के सम्बन्ध में उसके विचार आध्यात्मिकता से शारीरिकता की ओर परिवर्तित हो रहे हैं और खाने-पीने की न्यूनता से उसे भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी और जो कष्ट भी सामने आते हैं, उसने उन्हें सहना पसन्द न करके संसार के साधारण व्यक्तियों के आचरण का अनुकरण करना आरम्भ कर दिया।
जब से वृन्दावन ने अपने पिता के निर्मित उच्च आदर्श को त्यागा, तभी से पिता और पुत्र में कलह आरम्भ हो गई। इस कलह ने चरम-सीमा का रूप उस समय धारण किया, जब वृन्दावन की पत्नी अधिक रुग्ण हुई और उसकी चिकित्सा के लिए एक वैद्यराज बुलाया गया। यहां तक का व्यवहार भी क्षमा करने के योग्य था; किन्तु जब वैद्यराज ने रोगी के लिए एक अधिक मूल्य की औषधि का निर्णय किया, तो जगन्नाथ ने समझ लिया कि वैद्यराज अयोग्य है और वैद्यक के नियमों से बिल्कुल अपरिचित। बस उसने उसी समय उनको मकान से बाहर निकलवा दिया। वृन्दावन ने पहले तो पिता से काफी अनुनय-विनय की कि औषधि जारी रहे-फिर झगड़ा भी किया, परन्तु पिता के कान पर जूं तक न रेंगी। अन्त में जब पत्नी स्वर्ग सिधर गई तो वृन्दावन का क्रोध अधिक बढ़ गया और उसने अपने पिता को उसका प्राण-घातक ठहराया।
जगन्नाथ ने स्वभावानुसार उसको समझाने का बहुत प्रयत्न किया और कहा- "तुम कैसी नामसझी की बातें करते हो? क्या लोग विभिन्न प्रकार की औषधि खाकर नहीं मरते; यदि मूल्यवान औषधियां ही मनुष्य को जीवित रख सकती तो बड़े-बड़े राजा-महाराजा क्यों मरते? इससे पहले तुम्हारी मां और दादी मर चुकी हैं, बहू भी मर गई तो क्या हुआ? समय आने पर प्रत्येक व्यक्ति को यहां से कूच करना है।"
वृन्दावन यदि इस प्रकार दु:खी और सचेत होकर वास्तविक परिणाम पर पहुंचने में योग्य न होता, तो सम्भव था कि वह इन बातों से कुछ सान्त्वना प्राप्त कर लेता। इससे पहले मरने के समय उसकी मां और दादी ने औषधि न पी थी और औषधि सेवन न करने की यह रीति बहुत पहले से इस खानदान में चली आई है। नई पौध का चरित्र इतना बिगड़ चुका है कि वह पुराने ढंग पर मरना भी पसन्द नहीं करती।
जिस युग की चर्चा हम कर रहे हैं, उन दिनों अंग्रेज भारत में नए-नए आये थे; किन्तु उस समय भी इस देश के बड़े-बूढ़े अपनी-अपनी औलाद के स्वभाव-विरुध्द ढंग पर आश्चर्य और विकलता प्रकट किया करते और अन्त में जब उनकी एक न चलती तो अपने मुंह से लगे हुए हुक्कों से सान्त्वना प्राप्त करने का प्रयत्न करते।
वास्तविकता यह है कि जिस समय मामला चरम-सीमा को पहुंच गया तो वृन्दावन से न रहा गया और उसने आवेश तथा विकलता के साथ अपने पिता से कहा-"मैं जाता हूं।"
पिता ने उसे दृढ़ देखकर उसी समय आज्ञा दे दी।
और घोषणा करते हुए कह दिया- "चाहे देवता मेरे ढंग को गौहत्या के समान क्यों न समझें, मैं शपथ खाकर कहता हूं कि तुम्हें अपनी धन-संपत्ति से एक कौड़ी भी नहीं दूंगा।"
"यदि मैं तुम्हारी एक पाई तक को भी हाथ लगाऊं तो उस व्यक्ति से भी नीच होऊंगा जो अपनी मां को बुरे भाव से देखता है।" वृन्दावन के मुख से आवेश में निकल गया।
गांव के निवासियों ने अपने-जैसे विचारों के, लम्बे-चौड़े वाद-विवाद के पश्चात् उस छोटे-से परिवर्तन-भरे झगड़े को संतोषपूर्वक देखा। जगन्नाथ ने चूंकि अपने बेटे को अपनी संपत्ति से वंचित कर दिया था, अत: प्रत्येक व्यक्ति उसे सान्त्वना देने का प्रयत्न कर रहा था। वे सब इस विषय में सहमत थे कि केवल पत्नी की खातिर पिता के साथ झगड़ा करने का दृश्य इस नए युग में ही देखा जा सकता है। इसके सम्बन्ध में वे स्वयं जो कारण बताते थे वे भी बहुत असंगत थे। वे कहते थे यदि किसी की पत्नी मर जाये तो बड़ी सरलता से दूसरी प्राप्त कर सकता है, पिता मर जाये तो संसार-भर के धन-ऐश्वर्य के बदले में भी उसे प्राप्त नहीं कर सकता।
इस बात में सन्देह नहीं कि उनका उपदेश हर प्रकार से ठीक था; किन्तु हमें सन्देह है कि दूसरा पिता प्राप्त करने की पीड़ा उस पथ-भ्रष्ट बेटे को कहां तक प्रभावित कर सकती थी। इसके विरुध्द हमारा विचार यह है कि ऐसा अवसर आता तो वह उसे ईश्वरीय अनुकम्पा में सम्मिलित समझता।
वृन्दावन के अलग होने का दु:ख उसके पिता जगन्नाथ को तनिक भी अनुभव न हुआ। इसके कुछ विशेष कारण थे। एक तो यह कि उसके चले जाने से घर का खर्च कम हो गया, दूसरे हृदय से एक भारी चिन्ता दूर हो गई, हर समय उसे इस बात का भय रहता था कि मेरा बेटा मुझे विष देकर न मार दे। जब कभी वह अपना थोड़ा-सा भोजन करने बैठता तो यही विचार उसे विकल कर देता कि इसमें विष न मिला हुआ हो। यही चिन्ता किसी सीमा तक वृन्दावन की पत्नी का स्वर्गवास हो जाने पर दूर हो गई थी, किन्तु अब वह बिल्कुल ही न रही।
जिस प्रकार घने अंधियारे बादलों में चमकीली बिजली और भयंकर तूफानी समुद्र में बहुमूल्य रत्न विद्यमान रहते हैं, उसी प्रकार बूढ़े जगन्नाथ के कठोर हृदय में भी एक निर्बलता शेष थी। वृन्दावन जाते समय अपने साथ अपने चार-वर्षीय पुत्र गोकुलचन्द्र को भी ले गया था। चूंकि उसकी खुराक और वस्त्रों का खर्च बहुत न्यून था इसलिए जगन्नाथ को उससे बहुत प्रेम था। जाते समय जब वृन्दावन उसे अपने साथ ले गया तो सबसे पहले दु:ख और पछतावे की अपेक्षा उसने अपने मन में हिसाब करना शुरू किया कि इन दोनों के चले जाने से खर्च में कितनी कमी हो जाएगी। इस बचत की वार्षिक रकम कहां तक पहुँचेगी और इस बचत को यदि किसी रकम का सूद समझा जाए तो उसका मूलधन कितना हो सकेगा?
जब तक गोकुलचन्द घर में था वह अपनी चंचलता से जगन्नाथ का ध्यान अपनी ओर आकर्षित रखता था; परन्तु उसके चले जाने पर कुछ दिनों में ही बूढ़े को ऐसा अनुभव होने लगा कि घर काटने को दौड़ता है। इससे पहले जिस समय जगन्नाथ पूजा-पाठ में तल्लीन होता तो गोकुलचन्द उसे छेड़ा करता। भोजन करते समय उसके आगे से रोटी या चावल उड़ाकर भाग जाता और स्वयं खा लेता और जब वह आय-व्यय लिखने बैठता तो उसकी दवात लेकर दौड़ जाता, किन्तु अब उसके चले जाने पर ये सब बातें भी दूर हो गईं। जीवन में प्रतिदिन का क्रिया-कर्म उसे भार अनुभव होने लगा। उसे ऐसा मालूम होता था कि इस प्रकार का विश्राम भविष्य के संसार में ही सहन किया जा सकता है। जब कभी वह गोकुल की चंचलता को स्मरण करता तो रजाइयों में उसके हाथों के छेदों या दरी पर कलम-दवात से उसके बनाए हुए भद्दे चित्रों को देखता तो उसका हृदय कष्ट के मारे बैठ जाता। जगन्नाथ को अपने सोने के कमरे में एक कोने के अन्दर पड़ी हुई पुरानी धोती के टुकड़े दिखाई पड़े तो सहसा उसके नेत्रों से अश्रु बह निकले। वह धोती थी जिसे गोकुल ने दो वर्ष के अल्प समय में फाड़ दिया था तो जगन्नाथ ने उसे झिड़का और बुरा-भला कहा था। किन्तु अब उसने इन टुकड़ों को उठाकर बड़ी सावधानी से अपने सन्दूक में रख लिया और इसकी शपथ खा ली कि यदि गोकुल उसके जीते-जी फिर कभी वापस आ गया तो चाहे वह हर वर्ष एक धोती फाड़े, वह उससे कभी रुष्ट न होगा।
परन्तु गोकुल को न वापस आना था, न आया। गरीब जगन्नाथ दिन-प्रतिदिन वृध्द होता जा रहा था और उसको खाली घर अधिक-से-अधिक भयावना दिखाई पड़ता था।
अन्त में दशा यहां तक पहुंची कि वह सन्तोष से घर में बैठ भी न पाता। मध्यान्ह समय जब गांव के सब लोग अपने-अपने घरों में सोए होते तो जगन्नाथ नारियल हाथ में लिये गलियों में घूमता दिखाई देता। गांव के लड़के जब कभी उसे अपनी ओर आता देखते तो खेल छोड़कर दूर जा खड़े होते और इस प्रकार की पद्य-पंक्ति गाने लगते जिसमें एक स्थानीय कवि ने वृध्द जगन्नाथ के मितव्ययी स्वभाव की प्रशंसा की थी। कोई व्यक्ति भय के मारे उसका वास्तविक नाम इस डर से जबान पर न लाता कि कहीं उसे उस रोज अन्न-जल प्राप्त न हो। अत: लोगों ने उसके अनेक प्रकार के नाम रख छोड़े थे। वृध्द उसे जगन्नाथ कहा करते थे, परन्तु मालूम नहीं छोटे लड़के उसे चिड़ियल क्यों कहते थे। सम्भव है इसका कारण यह हो कि उसका चर्म शुष्क और शरीर रक्तहीन दिखाई देता था। इन्हीं कारणों से वह प्रेत-आत्माओं के समान समझा जाता था।

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